आंखों की गुस्ताखियां रिव्यू : अब थिएटर्स में रिलीज हो चुकी है। पद्मश्री रस्किन बॉन्ड की कहानी, विक्रांत मैसी जैसे शानदार अभिनेता की मौजूदगी और शनाया कपूर का बहुप्रतीक्षित डेब्यू – अगर आप इस फिल्म को थिएटर में देखने की सोच रहे हैं, तो यह रिव्यू ज़रूर पढ़ें।
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फिल्म का ट्रेलर बेहद प्रभावशाली था, जिससे उम्मीद जगी कि यह कहानी कुछ खास पेश करेगी। विक्रांत मैसी का नाम भरोसे का प्रतीक है और शनाया कपूर का डेब्यू, एक नया चेहरा इंडस्ट्री में देखने का मौका। ट्रेलर में दोनों के बीच अच्छी केमिस्ट्री भी नज़र आई। लेकिन जैसे ही फिल्म ‘आंखों की गुस्ताखियां‘ शुरू होती है, पहले आधे घंटे तक उम्मीद की रौशनी दिखती है… और फिर कहानी ऐसी ढलान पर जाती है कि सारी उम्मीदें बिखर जाती हैं। न तो फिल्म दर्शकों की भावनाओं को बांध पाती है, और न ही ट्रेलर में दिखे वादों को निभा पाती है।जिस तरह से फिल्म ने निराश किया है, उसके बाद न खुद को यह फिल्म देखने की ‘गुस्ताखी’ के लिए माफ कर पा रहे हैं, न ही मेकर्स को!
आंखों की गुस्ताखियां रिव्यू : कहानी
कहानी की शुरुआत सबा शेरगिल और जहान की मुलाकात से होती है, जो एक ट्रेन के डिब्बे में आमने–सामने आते हैं। इनमें से एक ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है (जिसकी वजह फिल्म देखने पर पता चलेगी), जबकि दूसरा वास्तव में देख नहीं सकता। दोनों एक ही दिशा में सफर कर रहे हैं, लेकिन उनके मकसद अलग–अलग हैं। अब ये देखना दिलचस्प है कि उनकी राहें कैसे एक–दूसरे से जुड़ती हैं। लेकिन असली सवाल यह है – क्या आप इस सफर पर थिएटर में जाने का मन बनाएंगे?
कैसी है फिल्म
फिल्म की शुरुआत का पहला आधा घंटा आपको हँसाता है, मनोरंजन करता है और यह भरोसा दिलाता है कि आप एक शानदार रोमांटिक–कॉमेडी–ड्रामा देखने जा रहे हैं। आप चैन से पॉपकॉर्न लेकर बैठते हैं (अगर आप पहले हाफ में खाने के शौकीन हैं), और सोचते हैं—वाह, आखिरकार कुछ अच्छा देखने को मिला।
लेकिन जैसे–जैसे कहानी आगे बढ़ती है, फिल्म की रफ्तार और रोमांच ठंडा पड़ने लगता है—इतना कि आपको थिएटर में एसी की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती।
क्लाइमेक्स तो इतना अनुमानित है कि आप शुरुआत में ही बता सकते हैं कि आगे क्या होगा। और जहां तक सरप्राइज़ एलिमेंट की बात है—तो वो कहीं रास्ता भटक कर गुम ही हो गया लगता है।
निर्देशन
आंखों की गुस्ताखियां’ का निर्देशन संतोष सिंह ने किया है, जिन्होंने इससे पहले विक्रांत मैसी और सिद्धार्थ शुक्ला की लोकप्रिय वेब सीरीज़ ‘ब्रोकन बट ब्यूटीफुल‘ भी डायरेक्ट की थी। लेकिन ऐसा लगता है कि संतोष इस बार अपनी पिछली स्टाइल से बाहर नहीं निकल पाए, या फिर फिल्म की लंबी और कमजोर स्क्रिप्ट ने उन्हें बांधकर रख दिया।
फिल्म में कई ऐसे लूपहोल्स हैं जो कहानी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते हैं। जैसे – जब सबा ने आंखों पर पट्टी बांधी हुई है, तो क्या उसकी सुनने की क्षमता भी खत्म हो जाती है? उसे यह कैसे महसूस नहीं होता कि जिसके साथ वह रह रही है, वह इंसान छड़ी का इस्तेमाल करता है?
एक सीन में तो सबा जहान की वॉकिंग स्टिक पकड़कर डांस करती है, मानो उसे यह एहसास ही न हो कि यह छड़ी क्यों है। ऐसे कई दृश्य हैं जो स्क्रिप्ट की गंभीरता को हल्का कर देते हैं। कुछ पल मनोरंजक हैं, लेकिन समग्र रूप से फिल्म दर्शकों को बांध नहीं पाती।
एक्टिंग
शनाया कपूर ने अपने डेब्यू में औसत प्रदर्शन किया है। जब तक उनकी आंखों पर पट्टी बंधी रही, अभिनय ठीक–ठाक लगा क्योंकि चेहरे का आधा हिस्सा ढका होने के कारण उनके एक्सप्रेशंस साफ नजर नहीं आ रहे थे। लेकिन जैसे ही पट्टी हटी, यह साफ हो गया कि उन्हें अपने हाव–भाव और भावनाओं पर काफी मेहनत करने की जरूरत है।
विक्रांत मैसी हमेशा की तरह मेहनती नजर आते हैं, लेकिन एक दृष्टिहीन व्यक्ति की भूमिका में वे पूरी तरह से फिट नहीं बैठते। कई बार वे सीधे कैमरे की ओर देखकर संवाद बोलते हैं, जिससे यह भरोसा नहीं हो पाता कि उनका किरदार वास्तव में देख नहीं सकता।
शनाया और विक्रांत के बीच किसी तरह की केमिस्ट्री महसूस नहीं होती, जो एक रोमांटिक कहानी के लिए बेहद जरूरी होती है। विक्रांत से उम्मीदें ज़्यादा थीं, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और दिशा–निर्देशन का असर उनके प्रदर्शन पर भी दिखाई देता है। अन्य कलाकारों की बात करें तो कुछ स्थानों पर वे जरूरत से ज्यादा नाटकीय हो जाते हैं, जिससे फिल्म और भी कमजोर लगने लगती है।
देखे या न देखें
फिल्म का खराब होना एक बात है, लेकिन शुरुआत में उम्मीदें जगाकर फिर उन्हें तोड़ देना वाकई में ज्यादा निराशाजनक होता है — और ‘आंखों की गुस्ताखियां‘ इसी अनुभव का उदाहरण है। अगर आप इस वीकेंड कोई रोमांटिक ड्रामा देखने का सोच रहे हैं, तो इसे एक बार देखा जा सकता है, लेकिन बेहतर होगा कि आप अपनी उम्मीदों को ज़्यादा ऊंचा न रखें।