अजय देवगन की रेड 2 ने धीरेधीरे अपनी रफ्तार पकड़ ली है। कुछ कमजोरियों के बावजूद यह फिल्म हालिया रिलीज़ फिल्मों से कई मायनों में अलग नजर आती है। एक्शन क्राइम थ्रिलर होते हुए भी यहां एक भी खून की बूंद नहीं गिरती। न हीरो किसी को घूंसे मारता है, न ही विलेन हथौड़े या फावड़ा उठाता है। निर्देशक ने बड़ी होशियारी से इसे पीरियड ड्रामा का रंग देकर राजनीति और सफेदपोशों के काले कारनामों को उजागर किया है।

रेड 2 देखने के बाद कुछ बातें कहना जरूरी हो जाता है। यह उन दुर्लभ फिल्मों में से एक है जहां हिंसा, हथौड़े, गंड़ासे, कुदाल या खूनखराबे से दूरी बनाई गई है। दर्शकों को इस मोर्चे पर राहत मिलती है। अजय देवगन का अभिनय संयमित और गंभीर है; शुरू से अंत तक उनके चेहरे पर वही गंभीरता बनी रहती है। रितेश देशमुख भी खतरनाक खलनायक के रूप में नहीं दिखते। पर्दे पर न खून बहता है, न ही कोई गला या हाथ काटा जाता है। बल्कि यहां सफेदपोश के छिपे हुए काले धन की कहानी दिखाई गई है, जिसके नोट बोरियों या डिब्बों में नहीं, बल्कि गोदामों, होटलों की पैंट्री और लॉन्ड्री में छिपाकर रखे गए हैं।

यह कल्पना से भी परे है। पैसा ये पैसा गाने की धुन के साथ जब यह दृश्य सामने आता है, तो दर्शकों के होश उड़ जाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि नेताजी की अध्यात्म और भ्रष्टाचार के मिलेजुले रूप को दिखाने के लिए कहानी को 1989 के दौर में सेट किया गया है, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री थे।

फाउंडेशन के नाम पर भ्रष्टाचार, काला धन की कहानी

जैसेजैसे रेड 2 की कहानी आगे बढ़ती है, फाउंडेशन के नाम पर चल रहे भ्रष्टाचार, काले धन, जमीन घोटाले, नौकरी के बदले युवतियों के शोषण और इन सबको सत्ता के रसूख से ढकने की साजिशें एकएक कर सामने आती हैं। फिल्म में रितेश देशमुख सफेदपोश नेता के किरदार में हैं, जो बेसहारों की मदद के लिए फाउंडेशन चलाते हैं और अपनी मां के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं। उनके लिए सबसे पहले मां की सेवा, उसके बाद बाकी काम।

धीरेधीरे वे अपने समर्थकों की मदद से राजनीति में कदम रखते हैं। यही समर्थक आगे चलकर उनका जनाधार बनते हैं। सत्ता मिलते हीदादाभाईकी दुनिया पूरी तरह बदल जाती है। वे किंगमेकर बनकर पहले राज्य की सत्ता पर कब्जा करते हैं और फिर केंद्र में मंत्री पद तक पहुंचते हैं।

लेकिन जब ईमानदार अफसर अमय पटनायक (अजय देवगन) का छापा फाउंडेशन के तहखाने तक पहुंचता है, तब दादाभाई को प्रधानमंत्री की याद आने लगती है।

रेड 2 में पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की छवि


रेड 2 में पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह की छवि को बेहद चतुर और गंभीर तरीके से पेश किया गया है। वह न कोई संवाद बोलते हैं, न किसी से मिलतेजुलते हैं। न कोई मीटिंग, सभा, भाषण या उद्घाटन समारोह में दिखते हैं। जब अमय पटनायक के छापे से दादाभाई के सभी ठिकानों का भंडाफोड़ हो जाता है, तब वह सबसे पहले मुख्यमंत्री से मदद मांगता है। जब वहां से निराशा हाथ लगती है, तो सीधा प्रधानमंत्री को फोन करता है। डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता और उनकी राइटिंग टीम (रितेश शाह, जयदीप यादव, करण व्यास) ने इस सीन को बेमिसाल तरीके से गढ़ा है। बिना एक भी संवाद के यह सीन गहरी बात कह जाता है।

दादाभाई जब हर तरफ से हार चुका होता है, तो अंतिम उम्मीद के तौर पर प्रधानमंत्री को कॉल करता है। उस दौर में लैंडलाइन का जमाना थान मोबाइल फोन थे, न इंटरनेट। पूरी फिल्म में नेता, मंत्री और अफसर सभी लैंडलाइन के जरिए ही संपर्क करते दिखते हैं। इसके जरिए फिल्म में 90 के दशक की दुनिया को बखूबी उकेरा गया है।

विलेन दादा भाई का फोन नहीं उठाते पीएम

प्रधानमंत्री कार्यालय में फोन की घंटी बजती है। कैमरा एक शख्स की पीठ पर ठहरता है, जिसके सिर पर वही फर वाली टोपी नजर आती है, जैसी कभी पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह पहना करते थे। टोपी पहने प्रधानमंत्री धीरे से उस दिशा में गर्दन घुमाते हैं, जहां कई लैंडलाइन फोन रखे हुए हैं, उन्हीं में से एक की घंटी लगातार बज रही है। उस दौर के कुछ टेलीफोन में एक छोटी सी स्क्रीन होती थी, जिस पर कॉल करने वाले का नंबर दिखाई देता था। प्रधानमंत्री उस नंबर को ध्यान से देखते हैं। तभी एक व्यक्ति (संभावित रूप से उनका निजी सचिव) उनके पास आता है और उनके कान में कुछ कहता है। इसके बाद प्रधानमंत्री फोन नहीं उठाते, बल्कि अपनी टोपी फोन के ऊपर रख देते हैं। घंटी लगातार बजती रहती है।

इसके आगे क्या होता है, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। बता दें, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990 तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। उनका कार्यकाल कुल 343 दिनों का रहा। वी. पी. सिंह बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के खुलासे को लेकर सुर्खियों में आए और उनकी छवि एक ईमानदार नेता की बनी। हालांकि, मंडल कमीशन की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू करने के फैसले के बाद हुए देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों ने हालात बिगाड़ दिए, जिससे संयुक्त मोर्चा सरकार को प्रधानमंत्री बदलना पड़ा और चंद्रशेखर ने पद संभाला।

रेड 2 में लैंड फॉर जॉब स्कैम का भी जिक्र

हालांकि फिल्म में विश्वनाथ प्रताप सिंह की छवि को किस संदर्भ में दिखाया गया है, यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। फिल्म निर्माता चाहें तो इस शॉट को शामिल नहीं कर सकते थे, और इससे फिल्म की कहानी या प्रस्तुति पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। फिर भी, डायरेक्टर ने नब्बे के दशक में राजनीति, भ्रष्टाचार और काले धन के आपसी गठजोड़ को दर्शाने के लिए इसे जरूरी समझा है। महज पांच सेकंड का यह दृश्य निर्देशक की समझदारी और सूझबूझ को दर्शाता है, और फिल्म की गहराई को बढ़ाता है।

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यह भी सही है कि उसके बाद के समय में भ्रष्टाचार, अपराध, सफेदपोश नेताओं, आध्यात्मिक गुरुओं और काले धन को सफेद करने वाले फाउंडेशनों पर कई बार रेड पड़ी हैं। टीवी चैनलों पर छापेमारी के दौरान बेहिसाब काला धन और गहनों की बरामदगी की तस्वीरें हमें अक्सर देखने को मिलती हैं। इस फिल्म में इसका असर साफ तौर पर देखा जा सकता है, खासतौर पर लैंड फॉर जॉब मामले में। मुख्य विलेन दादा भाई ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए कई लोगों से रिश्वत के रूप में जमीन ली और बदले में रेलवे में नौकरी दिलवाई, इसका खुलासा भी फिल्म में किया गया है। फिल्म में बारबारलैंड फॉर जॉबशब्द का इस्तेमाल किया गया है, और जो युवतियां जमीन नहीं दे पातीं, उनका शारीरिक शोषण करके दादा भाई उन्हें नौकरी दिलवाता है।

1989 के पीरियड ड्रामा में कल्पना की चाशनी

यह ध्यान देने योग्य है कि लैंड फॉर जॉब मामला मीडिया में तब चर्चा में आया था, जब पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव पर आरोप लगे थे। लालू यादव 2004 से 2009 तक केंद्रीय रेल मंत्री रहे थे। यह मामला उसी समय का है और इसकी जांच और सुनवाई अभी भी जारी है। लेकिन राजस्थान बैकड्रॉप वाली फिल्म रेड 2 में इस शब्द को बड़ी चालाकी से शामिल किया गया है। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि फिल्म में रितेश देशमुख का किरदार किससे प्रेरित है, या फिर यह पूरी तरह से काल्पनिक है जिसे पीरियड ड्रामा के रूप में ढालने की कोशिश की गई है और मीडिया की सुर्खियों की चाशनी में पेश किया गया है।

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