सिंदूर भारतीय फिल्मों का सुपरहिट फॉर्मूला रहा है। मीना कुमारी से लेकर दीपिका पादुकोण तक, कई हिंदी फिल्मों में सिंदूर का जादू बॉक्स ऑफिस पर खूब चला है। अब फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा जोरों पर है कि भारतीय वायुसेना के ऑपरेशन सिंदूर पर भी फिल्मों की तैयारी की जा रही है।
Table of Contents
भारतीय समाज में सिंदूर आस्था और भावनाओं का प्रतीक माना जाता है, और यह भारतीय सिनेमा, खासकर हिंदी फिल्मों, में हमेशा से एक हिट फॉर्मूला साबित हुआ है। कहानियों, किरदारों और गीतों में इसका इस्तेमाल बड़े प्रभाव के साथ होता आया है। अब खबरें हैं कि पाकिस्तान के भीतर भारतीय वायुसेना के सफल ऑपरेशन सिंदूर के बाद, इससे जुड़ी स्टोरीलाइन और टाइटल तेजी से रजिस्टर कराए जा रहे हैं। हालांकि, भविष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन–से डायरेक्टर्स इस विषय पर कितनी बेहतरीन फिल्में बना पाते हैं।
इसी बीच, पुरानी फिल्मों की यादें भी ताजा हो रही हैं, खासकर उन फिल्मों की, जिनमें सिंदूर को एक केंद्रीय विषय बनाया गया था। इनमें सबसे उल्लेखनीय फिल्म है – साहब बीबी और गुलाम।
1962 में आई साहब बीबी और गुलाम में सिंदूर का खास महत्व था। इस फिल्म को गुरुदत्त ने प्रोड्यूस किया था, और निर्देशन का जिम्मा अबरार अल्वी ने उठाया था। फिल्म में मीना कुमारी और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं, जबकि सामंतवाद के प्रतीक के रूप में रहमान नजर आए थे। साहब बीबी और गुलाम को भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। इसकी कहानी, किरदार, अभिनय, संगीत और संवाद – हर पहलू में यह फिल्म भारतीय सिनेमा और साहित्य में अपना अनूठा स्थान रखती है। दिलचस्प बात यह है कि यह फिल्म बंगाली लेखक विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित थी, जिस पर पहले 1956 में बंगाली भाषा में भी एक सफल फिल्म बन चुकी थी।
हवेली की छोटी बहू का दर्द
हालांकि उस फिल्म में मुख्य रूप से उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ढहते सामंतवाद और उसकी कुरीतियों को दिखाया गया था, लेकिन इसकी थीम में एक औरत के दर्द को खास अहमियत दी गई थी। यह औरत थी – छोटी बहू, जिसका किरदार निभाया था मीना कुमारी ने।
छोटी बहू की दुनिया में भौतिक चीजों की कोई कमी नहीं थी। महल में हर तरह का वैभव, ऐश्वर्य और संपन्नता मौजूद थी, लेकिन उसके जीवन का सबसे बड़ा दुख था – उसके पति की बेरुखी। छोटे बाबू के नाम से मशहूर उसके पति का किरदार निभाया था रहमान ने। छोटे बाबू की ज़िंदगी की सबसे बड़ी लत थी – बेहिसाब शराब पीना और रात–रात भर कोठे पर नर्तकियों के नाच का आनंद लेना। कुल मिलाकर, वह एक ऐय्याश और कोठेबाज इंसान था।
मोहिनी सिंदूर का विज्ञापन
ऐसे हालात में छोटी बहू, यानी मीना कुमारी, को लगने लगता है कि उसका पति उससे प्रेम नहीं करता। उसे महसूस होता है कि उसका शृंगार, यौवन और सौंदर्य सब बेकार है अगर वह अपने पति का दिल नहीं जीत पाती। पति की इस बेरुखी और उपेक्षा से दुखी होकर वह एक टोटके का सहारा लेने का फैसला करती है। अखबार में छपा एक विज्ञापन उसकी नजर खींच लेता है — यह मोहिनी सिंदूर का विज्ञापन था, जिसमें लिखा था: पति को प्रसन्न करने के लिए हर भारतीय नारी को मोहिनी सिंदूर का उपयोग करना चाहिए।
यह विज्ञापन देखने के बाद, मीना कुमारी आधी रात को अपनी हवेली में काम करने वाले भूतनाथ, यानी गुरुदत्त, को अपने कक्ष में बुलाती है। वह उससे कहती है — इतने दिन से इस घर में हो, फिर भी इसकी रीत नहीं समझे? यहां दिन सोने के लिए होता है, और रात जागने और जगाने के लिए… और मैंने तुम्हें इसी दुख को दूर करने के लिए बुलाया है।
भूतनाथ खरीदता है मोहिनी सिंदूर
इसके बाद छोटी बहू, यानी मीना कुमारी, भूतनाथ को कुछ रुपये देती है। भूतनाथ हैरान होकर पूछता है — ये किस लिए रुपये हैं? तब छोटी बहू जवाब देती है — ये मोहिनी सिंदूर की कीमत है। बताओ, क्या उस सिंदूर का सच में कोई असर होता है या नहीं?
भूतनाथ चकित रह जाता है, वह समझ नहीं पाता कि छोटी बहू क्या कहना चाह रही है। तब वह आगे कहती है — मेरे इस दर्द को हर कोई नहीं समझ सकता… मर्द तो बिल्कुल भी नहीं, और सभी औरतें भी नहीं। इसे केवल वही औरतें समझ सकती हैं जिनके भाग्य फूटे हों… और ये दर्द, ये अपमान, एक औरत के लिए सबसे बड़ी लज्जा होती है…
दिलचस्प बात यह है कि फिल्म में जिस मोहिनी ब्रांड सिंदूर का विज्ञापन छोटी बहू देखती है, वह असल में भूतनाथ की ही फैक्ट्री का बना होता है। यही नहीं, उस मोहिनी सिंदूर के विज्ञापन की इबारत — इसे लगाने से पति और प्रेमी वश में रहते हैं — खुद भूतनाथ ने ही लिखवाई थी। इस विज्ञापन को पढ़ने के बाद छोटी बहू छुपकर जाकर वह सिंदूर खरीदती है।
सिंदूर कितना असर दिखाता है?
असल में, यह फिल्म विमल मित्र के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी, और इसे बनाने के पीछे गुरुदत्त की अपनी एक खास सोच थी। फिल्म का मुख्य उद्देश्य सामंतवाद की बुराइयों को उजागर करना था। अय्याश छोटे बाबू के किरदार के ज़रिए गुरुदत्त ने उस समय के सामंतवाद के गिरते और विकृत होते स्वरूप को दिखाया।
हालांकि, इस फिल्म की कहानी सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी। सामंतवाद के पतन के साथ–साथ इसमें एक और अहम परत थी — स्त्री की पीड़ा। मीना कुमारी, यानी छोटी बहू, इस पीड़ा की प्रतीक बनीं।
कहानी आगे बढ़ती है, और जब मोहिनी सिंदूर का असर भी नाकाम हो जाता है, तब छोटी बहू अपने पति का दिल जीतने के लिए हरसंभव कोशिश में जुट जाती है। वह शराब पीना शुरू कर देती है और नर्तकियों की तरह मोहक अदाओं का सहारा लेकर पति को रिझाने की कोशिश करती है।
फिल्मों में सिंदूर का प्रचलन बढ़ा
कोई आश्चर्य नहीं कि साहब बीबी और गुलाम की सफलता के बाद हिंदी फिल्मों में सिंदूर का चलन तेजी से बढ़ा। इसके बाद आई कई हिंदी फिल्मों में किसी न किसी रूप में सिंदूर शब्द का इस्तेमाल प्रमुखता से किया गया। कभी पारिवारिक कहानियों के ज़रिए, तो कभी एक औरत की संघर्ष भरी ज़िंदगी के माध्यम से, सिंदूर की अहमियत को सिल्वर स्क्रीन पर पेश किया गया। भारतीय संस्कृति में सिंदूर सुहागन महिलाओं के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इसे सिनेमा में कई बार दिखाया गया।
मांग भरो सजना, सुहागन, सदा सुहागन, खून भरी मांग, सिंदूर जैसी फिल्मों ने इसे सौभाग्य और पति के गौरव के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। यहां तक कि कई लोकप्रिय गानों में भी सिंदूर का उल्लेख हुआ, जो दर्शकों के बीच खूब चर्चित हुए। हालांकि, 90 के दशक के बाद फिल्मों में सिंदूर या सुहागन जैसे शब्दों का इस्तेमाल कम होता गया, और उनकी जगह करवा चौथ का प्रचलन बढ़ गया। फिर भी, शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की 2007 की फिल्म ओम शांति ओम का मशहूर डायलॉग — एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो, रमेश बाबू — सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ।
अब, भारतीय सेना के ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद, ऐसा लग रहा है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री एक बार फिर सिंदूर की महिमा को केंद्र में रखकर नई फिल्मों की तैयारी में है। दर्शकों को इन आगामी फिल्मों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।